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सह-सम्मत समीक्षा के लाभके द्वारा Doreen Boydtranslated by Parveen Rattanकुछ लाभ: इस प्रक्रिया से या तो समाज सेवक को जो पहले से ही मालूम था उसका पुष्ठिकरण होता है, या फिर जो उसकी गलत धारणायें थी, उनका सुधार होता है, जब वह अपने अनुभव को अभी की स्थिति में मह्सूस करता है. समाज के सद्स्यों द्वारा खुद, कुशलता-पूर्ण की गई समाज की समीक्षा, से ही शुरुआत होती है सम्मलन की क्रिया. इसीसे लोगों में मिल कर कार्य करने की इच्छा और प्रेरणा उत्पन्न होती है जो इन कार्यों को जारी रखने के लिए बहुत ज़रूरी है. लोग जैसे इस कार्य में शामिल होते हैं, और अपनी समीक्षा का अध्य्यन करते हैं, उन्हें जानकारी होनी आरम्भ होती है, कि उनके हालात के लिये मूल कारण क्या हैं. इससे उन्हें सुगमता से समझ आता है कि अपनी प्रगति के लिये उन्हें कैसे कदम लेने चाहिये, कैसे अपनी ज़रूरतों की वकालत अधिकारियों के सामने करनी चाहिये आदि. अगर समाज के सदस्य अपने निजी लाभ को छोड़ कर, पूरे समाज की ज़रूरतों को प्रमुखता दे सकें तो यह बहुत मददगार सिद्द होता है. मेरे अनुभव में, समाज की ज़रूरतों या साधनों की सूची बनाने में यही सबसे बड़ी बाधा साबित होती है. स्वभाव से ही लोगों में खुद अपने निजी द्रिष्टिकोण, अपने निजी लाभ को प्राथमिकता देने की प्रक्रिति होती है. इसका मतलब यह नही कि यह खराब बात है, किन्तु इससे गलत निश्कर्ष भी लिये जा सकते हैं और इसके अलावा व्यक्तियों को निराशा भी हो सकती है जब उनके 'निजी ' स्वार्थ पूरे न हों और तब संभावना है कि वह कार्यों से 'अलग हो जायें' उनमें दिल्चस्पी लेना ही छोड दें. इस समीक्षा की रिपोर्ट का उसी तरह उपयोग किया जा सकता है जैसे देश की प्रगति के लिये गरीबी के फैलाव की रिपोर्ट्स का उपयोग होता है, यानि इनके आधार पर गरीबी हटाने की ऐसी योजनायें बनाई जाती हैं जो खास समाज के हालात पर निर्भर होती हैं, और अपनी समीक्षा के नतीजों को आधार बना कर शासन नीति में क्या बदलाव आने चाहिये उनकी सलह भी दी जाती है. इसके अलावा अन्य 'कई ऐसे सुझाव भी आते हैं जो समाज के सदस्य देते हैं, जो सिर्फ़ उनके लिये नहीं किन्तु 'बडे पैमाने पर' निर्णय लेने में उपयुक्त होते हैं, जिनसे उनकी ज़िन्दगी पर असर पड़ता है और अन्त में इससे उन्हें यह सब कार्य करने के लिये साधन जुटाने में भी उपयोगी साबित होते हैं. दुनिया के कई भागों में PAR तकनीकों को उपयोग में लाने के उपरान्त, मेरे अपने अनुभव के आधार पर यह कुछ विचार हैं. अधिकतर पहले समाज चित्र बनाता है (मान-चित्र बनाना) जिससे आसानी से गलत धारणायें स्वयं साफ़ हो जाती हैं या जिनके विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं है, जैसे सीमायें, या जहां ज़रूरी साधन (जैसे शौचालय, पाइपस, दुकानें आदि) स्थित हैं. इससे स्वाभाविक रूप से ही 'यह जानकारी प्राप्त की जाती है ' और फिर यहीं से समाज की पूर्ण जांच का इरादा उत्पन्न होता है. यहां कहना उचित होगा कि मेरे अनुभव में कभी ऐसा नहीं हुआ है कि सदस्यों ने यह कार्य करने से इन्कार किया हो या शिक्षण के बाद वह यह कार्य करने मे असमर्थ रहे हों. कुछ और विचार: समाज सेवकों को इस क्रिया में एक खास बात ध्यान में रखनी है ─ कि आम व्यक्तियों में भी असाधारण क्षमतायें छुपी होती हैं चाहे वह कितनी ही दयनीय हालात में जी रहे हों. कहने का तात्पर्य है कि आर्थिक गरीबी का मतलब यह नही कि इरादों, सपनों, इच्छायों,या हुनर की गरीबी भी हो. इनमें भी अपने सपनों को साकार करने का सामर्थ्य होता है. सबसे ज़रूरी है 'अटूट विश्वास'लोगों की क्षमता पर, और जो कार्य आप कर रहे हैं उसकी प्रभाविकता पर. कई व्यव्सायिक समाज सेवक अभी तक यह ज़रूरी नही समझते कि सदस्य उन विषयों पर खुद निर्णय लें जिनका उनके जीवन पर गहरा असर पडता है, और यह भी नही मानते कि सदस्यों में ऐसी क्षमता हो सकती है कि वह सब पहलूयों को सामने रख कर उनका विश्लेषन कर सकें और सही निश्कर्ष पर पहुंच सकें. बिना किसी शक के, ऐसे विचार समाज सेवकॊं के लिये नही है, किन्तु यह PAR (सह-सम्मत समीक्षा) की क्रिया के विरोध में हैं, क्यों कि इनके अनुसार किसी भी तरह का अनुसंधान सिर्फ़ कुछ खास शिक्षित लोग ही कर सकते हैं, अनपढ या आम व्यक्ति नही. इनके अनुसार अनपढ लोगों की जांच दूसरे ही कर सकते हैं, वह खुद नहीं. डोरीन बोय्ड, UNDP बार्बाडौस ––»«––अगर
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