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अनुदान, ऋण और ग़रीबी उन्मूलनके द्वारा फिल बार्टले, पीएच.डी.
अनुवादक: मनीष कपूरजुटाव कार्यकर्ता â प्रशिक्षक युक्तियाँयह क्षेत्र कार्यकर्ता के लिए एक संक्षिप्त हस्तपुस्तक है जो कि कम - आय समुदायों की सशक्तिकरण तकनीकों के पीछे की सुदृदता के मूल सिद्धांत समझती हैपरिचय: कई भले दिल के लोगों ने लोगों ने ग़रीबी की कठिनाइयों को देखा है, अक्सर बड़ी आपदाओं के समय पर, कुछ प्राकृतिक, तो कुछ मानव रचित. उन भले दिल के लोगों ने पीड़ितों के लिए आय सृजन के लिए प्रयास किए हैं. कुछ ने पीड़ितों को सिलाई मशीनें दी हैं, और कुछ ने खाना. इन सभी योजनाओं में समान यह था की परोपकार का अंत होने के बाद इनका पोषण नहीं हो सका हमारा उद्देश्य है की ग़रीबों की मदद करना, मदद करके प्रोपकार पर निर्भर नहीं बनाना (ताकि वे ग़रीब ही रहें), बल्कि उन्हें मज़बूत करना और किसी सहयता के बिना विकास करना सिखाना है इस साइट पर प्रशिक्षण सामग्री का मूल विषय "सशक्तिकरण" है जहाँ लाभार्थीयों को दान नहीं दिया जाता, बल्कि उन्हें अधिक मज़बूत और आत्मनिर्भर करने के लिए और परोपकार पर न निर्भर होने के लिए साहयता दी जाती है. हर दान में अंतर होता है, कुछ दान, हालाँकि भली भावना से दिए गए, लाभार्तीयों में भविष्य में और दान मिलने की उम्मीद जगा देता है, और उनपर निर्भर कर देता है. (देखिए "निर्भरता सिंड्रोम"). और कुछ दान होते हैं जो ग़रीबों को भविष्य में ग़रीब नही रहने में मदद करते हैं. इन्हें हम चाहते हैं और समर्थन करते हैं. ओह, हम आपातकालीन स्थिति में दान का विरोध नहीं करते. ऐसे समय जब पीड़ित असहाय हो जाते हैं जैसे भूचाल, नागरिक संघर्ष, बाढ़, युद्ध, तूफान, बम, विमान दुर्घटना आदि. ऐसे समय में हमारा दायित्व है की हम पीड़ितों को भोजन, आवास, चिकित्सा जैसी सहयता प्रदान करें जिनके बिना वे जीवित नहीं रह पाएँगे. लेकिन एक समय आता है जब दान एक बोझ बन जाता है, पीड़ितों को मज़बूत बनाने के विरुद्ध उन्हें ग़रीब और कमज़ोर बनाने लगता है. इन दोनो स्थितियों के बीच अंतर पहचानना बहुत कठिन है, और दान से विकास की ओर स्थानांतरण करना आसान नहीं है सशक्तिकरण के सिद्धांतों के आधार पर, इस शृंखला में ग़रीबी कम करने की विधि बताती है नया मूल्य सृजन करना (धन), ग़रीबी उन्मूलन के लिए दान का रास्ता नहीं चुनना और वित्तीय सहयता प्राप्त दर पर नहीं, बल्कि, निशपेक्ष, वाणिज्यिक दरों पर ऋण लेना. जहाँ भी संभव हो, बिना मेहनताने के जो दिया जाता है वो है, आयोजन और प्रबंधन प्रशिक्षण जो कि लाभार्थीयों को ऋण का उपयोग करके वास्तविक मूल्य (धन) सृजन करना सिखाता है अनुदान बनाम ऋण: कुछ लोगों क मानना है कि हमें आय उत्पादन के लिए ग़रीब लोगों को अनुदान देना चाहिए. अनुदान तोहफे हैं. इन्हें वापस चुकाने की उम्मीद नहीं की जाती. जब हम ग़रीब लोगों को देखते हैं तो हमें उन्हे चीज़ें दे कर मदद करने की इच्छा होती है. लेकिन, उन्हें चीज़ें देना उन्हें और मदद और चीज़ें मिलने की आशा कराता है. किसी आपदा के बाद, उन्हें जीवन के लिए ज़रूरी चीज़ें देना (भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा) अच्छी बात है, अगर वे इनके बिना बच नहीं सकते तो. लेकिन, एक बार वे बच जाएँ तो ये चीज़ें देना जारी रखना बढ़ावा देता है निर्भरता सिंड्रोम को, और इस प्रकार ग़रीबी को जारी रखता है. The "दान रवैया हमें ग़लत सिखाता है कि हमें उनके हाथ में चीज़ें देते रहना चाहिए. इसके विपरीत, "विकास विश्लेषण " हमें बताता है की दान स्थाई नहीं है, ग़रीबी को दीर्घकालिक बनाने मे योगदान देता है और उनको मज़बूत और आत्मनिर्भर बनाने में सहयता नहीं करता. जब कुछ लोग "आय उत्पादन" के बारे में सुनते हैं तो उन्हें लगता है कि लाभार्थीयों को धन देना ही आय-उत्पादन है. लेकिन ऐसा नहीं है. एक व्यक्ति से दूसरे को धन का स्थानांतरण करने से धन उत्पादन नहीं हो सकता. धन का स्थानांतरण केवल लाभार्थीयों के ग़रीबी के लक्षण हटा देता है, लेकिन कुछ समय के लिए. यह ग़रीबी के कारणों पर हमला नहीं करता और ही ग़रीबी मे कमी लता है या उसका उन्मूलन करता है. इस प्रकार, इस पद्धति के अनुरूप, धन का स्थानांतरण केवल उधर या ऋण के रूप में होता है जो कि वापस चुकाया जाता है. इस ऋण के लाभार्थी यदि ऋण का उपयोग करके अपनी आय बढ़ा लेते हैं, जिसमें शामिल है ऋण चुकाने लायक रकम और उनके लिए अतिरिक्त नकदी, तभी हम कहते हैं की वास्तविक धन सृजन हुआ है. ब्याज दरें: एक बार यह साबित हो गया है की अनुदान के बजाय ऋण ही ग़रीबी में कमी लाने में सहायक होता है और वास्तविक धन सृजन करता है, तब प्रश्न यह उठता है कि "क्या ब्याज दिया जाना चाहिए और अगर हाँ तो किस दर पर?" फिर, भले दिल वाले, दान-रवैया रखने वाले लोग यही कहेंगे- "इन ग़रीब लोगों से ब्याज नहीं लेना चाहिए या फिर कम से कम दरों पर लेना चाहिए. जैसा हमने ऊपर बताया, ऐसा करने से ग़रीबी केवल बढ़ती है, कम नहीं होती. एक कार्यक्रम जिसका उद्देश्य लोगों को आत्मनिर्भर और स्वयंसक्षम बनाना है, अंत में एक प्रशिक्षण कार्यक्रम है. जब आप सड़क के किनारे पर एक भिखारी देखते हैं और उसे एक सिक्का दे देते हैं, तब आप उसे प्रशिक्षित कर रहें है, भीख माँगने के लिए और भिखारी बने रहने के लिए. फिर से कहानी देखिए "मोहम्मद और रस्सी"कहानियों में. जब भिखारी ने मोहम्मद पैग़ंबर से खाना माँगा तो पैग़ंबर ने उसे एक रस्सी दी और यह सलाह दी की वह रस्सी ले कर जंगल में जाए और आग की लकड़ियाँ चुन कर उस रस्सी से बाँध कर बाज़ार मे बेचे, और अपने खाने के पैसे कमाए. इस तरह उसे सलाह और पूंजी मिली , ना कि दान. इस तोहफे से वो भिखारी नहीं रहा हौर आत्मनिर्भर हो गया. इस सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए, यह पद्धति यहाँ यह सिफारिश करती है कि ऋण उसी दर पर मिलना चाहिए जिस दर पर आपके इस कार्यक्रम के बिना मिलता (उचित बाज़ार दरें अथवा सरकारी दरें). अगर आप मुफ़्त या कम दरों पर ऋण देते हैं तो आप इन लाभार्थीयों को मुफ़्त या कांन दरों पर ऋण से काम करने के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं, ना कि असली दुनिया के लिए. आपको इन्हें असली दुनिया के लिए प्रशिक्षित करना होगा. अगर आप ऋण के अनौपचारिक एर ग़ैरक़ानूनी बाज़ार को देखें देखिए ("ऋण शार्क") तो आप पाएँगे कि ब्याज दरें आपराधिक लुतेरू स्तर पर होंगी उदाहरण - 200% या अधिक. इस पद्धति के तहत, आप इन प्राप्तकर्ताओं को धीरे-धीरे बैंक या ऋण-संघ से ऋण लेने के योग्य बना देते हैं, और ऋण शार्क पर उनकी निर्भरता ख़त्म कर देते हैं. ग़रीबी उन्मूलन की इस पद्धति के अनुसार, ऋण केवल उपलब्ध दरों पर होना चाहिए, ना कि मुफ़्त या कम दरों पर. धर्म के बारे में एक नोट: कई धर्म, ख़ासकर वे धर्म जैसे यहूदी/ ईसाई/ इस्लाम जिनकी परंपराओं में ऋण राशि (या उच्च दरों) के विरुद्ध नियम हैं. ये चोरी के बराबर लुतेरू स्तर की ब्याज दरों से शुरू हुए थे. ऋण शार्क सदियों से चले आए हैं. इनकी ब्याज दरें असामान्य रूप से ऊँची होती हैं जिसे "सूदखरी" कहते हैं. हम यहाँ सूदखरी की वकालत नहीं करते जब आप एक मुसलमान समाज में इस प्रकार की आय-उत्पादन योजना का संचालन कर रहे हों तो आपको ऐसी दुविधा का सामना करना पड़ सकता है. (1) स्थाई ग़रीबी में कमी के लिए ब्याज वसूलना ज़रूरी है (2) धार्मिक परंपरा ब्याज लेने से मना करती है. दरें नहीं; इसका समाधान है. हमारी सलाह है की आप वही करें जो मुसलमान देशों में बैंक करते हैं. ऋण पर ब्याज लेना वास्तव में पैसे पर एक तरह का किराया है. वहाँ जैसे घर या कार का किराया होता है, वैसे ही ऋण पर किराया लेने की अनुमति है. वहाँ बैंक ब्याज की जगह किराया या सेवा शुल्क लेते है. इनका पता कीजिए और अपनी आय-उत्पादन योजना में वही शुल्क लीजिए. "दान रवईया" से बचने के साथ-साथ, सूदखरी से भी बचिए. बैंक का काम कौन करेगा? हालाँकि यह पद्धति कहती है कि लाभार्थीयों को पैसे उचित बाज़ार दरों पर मिलने चाहिए, यह भी कहती है की ऋण केवल बैंक, ऋण-संघ या ऐसी कोई भी अधिकृत संस्था से ही लेना चाहिए. यह बेहतर है की ऋण आप बैंक से उपलब्ध कराएँ (कुछ लोगों के साथ मिलकर), बजाय कि ऋण खुद बाँटने के. ऐसा करने से आप पारदर्शिता को बढ़ावा देते हैं और अपने आप को भ्रष्टाचार के इल्ज़मों से सुरक्षित कर लेते हैं. यदि आप और आपकी एजेन्सी या विभाग, जो कि समुदाय को व्यवस्थित तथा सशक्त करने के ज़िम्मेदार हैं, ऋण का वितरण करते हैं तो आपकी सशक्तिकरण और जुटाव कार्य की क्षमता कम हो जाती है. अगर आप ईमानदार भी हों, तब भी आप पर निजी उद्देश्यों के लिए पैसे का इस्तेमाल करने का शक किया जा सकता है, जिससे अविश्वास पैदा होता है. अविश्वास आपके प्रभाव को कम कर देता है अनुदान देने के बजाय आप इस राशि का इस्तेमाल ऋण की व्यवस्था से जुड़े प्रशिक्षण मे कर सकते हैं. ब्याज में रियायत देने से अच्छा है कि आप इस धन का इस्तेमाल प्रशिक्षण के लिए करें अपने लाभार्थीयों को असली ब्याज दरों की दुनिया में जीने और मज़बूत बनने का प्रशिक्षण दें निष्कर्ष: यह हस्तपुस्तक समझाती है कि, जब आप लाभार्थीयों को सशक्त करना चाहते हैं तब निर्भरता को बढ़ावा देने से बचें और उन्हें आत्मनिर्भर बनने में मदद करें, माल या पैसे के रूप में किसी भी अनुदान से बचें, पैसे को ऋण के रूप में दें (अधिकृत वित्तीय संस्थाओं के द्वारा), और यह ऋण उपलब्ध उचित बाज़ार दरों पर दें. अगर कुछ मुफ़्त में दिया जाना चाहिए तो वह पैसा नही है, वह है आयोजन और प्रशिक्षण. ––»«––प्रशिक्षण यात्रा: बैंक का एक दौरा © कॉपीराइट १९६७, १९८७, २००७ फिल बार्टले
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