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प्रबंधकों एवं समाजसेवकों के लिये सुझावसमाज या संस्था का संचालनके द्वारा फिल बार्टले, पीएच.डी.
translated by Parveen RattanDedicated to Gert Lüdekingप्रशिक्षण लेखसंचालन की शिक्षा में, समाज एवं संस्थाओं के लिये, सहयोग के सिद्धान्त.समाज के सशक्तिकरण में सद्स्यों का योगदान, और किसी संस्था के सामर्थ्य बढ़ाने में सहयोगी संचालन में बहुत समानतायें हैं A. सबसे पहले दूरदर्षिता: संस्था या समाज को निर्णय लेना होगा कि वह क्या करना चाहता है. बहुत लक्ष्य हो सकते हैं, किन्तु एकमत हो कर समाज या संस्था को निर्णय करना होगा कि वह क्या चाहता है. इसे बताने के लिये शिक्षक "ऐलिस इन वन्डर्लैन्ड" की मशहूर कहावत का प्रयोग कर सकते हैं. "अगरहमें मालूम ही नहीं कि हमें कहां जाना है, तो कोई भी रास्ता चलेगा." (लुई कैरोल). बिना इस लक्ष्य के, कि समाज या संस्था को किस ओर जाना है, ऐसा ही है जैसे कहीं न जाय और उसी हालात में रहे (अपनी उदासीनता, गरीबी, बीमारी,तकलीफों के साथ ) जैसा है. B. कुछ निर्णय कार्यक्रम के लिये ज़रूरी हैं: एक बार लक्ष्य चुनने के बाद ज़रूरी है कि कार्यक्रम के लिये कुछ निर्णय लेने होंगे जिनसे लक्ष्य के करीब पहुंचा जा सके. शिक्षा के समय इस कहावत से इसे बताया जा सकता है "योजना का अभाव या असफलता माने असफलता की योजना." (और भी देखिये "कहावतें"). अगर सफलता की परिभाषा है लक्ष्य तक पहुंचना, तब ज़रूरी है उसके लिये योजना बनाना. (कहने की ज़रूरत नहीं कि अंतिम लक्ष्य तक जाते समय राह में छोटे लक्ष्य बदल सकते हैं, और निश्चय ही लक्ष्य पाने के बाद अगला लक्ष्य बदल जायेगा). C. कार्यक्रम की योजना समय में उल्टी दिशा में होती है: योजना से मतलब है वह सोच जो हमें (आज की स्थिति से) ऐसी जगह (या उस स्थिति में ले जायेगी ) जो हमारे लक्ष्य पाने पर होगी. यह सोच की क्रिया युक्तिसंगत और तार्किक होनी चाहिये, और सहज ही आज की स्थिति से भविष्य की दशा की और जानी चाहिये बताइये कि: "योजना हम समय में उल्टी दिशा में करते हैं (यानी अंत से शुरु करें, ऒर शुरुआत पर अंत करें)." योजना के आरम्भ में तय करें कि हमें कहां जाना है, फिर पूछें कि वहां जाने के लिये हमे क्या करना पड़ेगा. हरेक कदम युक्तिसंगत होना चाहिये और एक कदम से दूसरे कदम चलते चलते लक्ष्य आना चाहिये. D. कम परिश्रम से अधिक नतीजा: योजना बनाने की क्रिया में, छात्रों को प्रेरित करें कि वह अपने सभी साधनों का अधिकतम ऒर सही उपयोग करें जिससे वह अपने लक्ष्य को पा सकें. अपने परिश्रम के उत्पादन के कई अर्थ संभव हैं. "जैसे उत्पादन का एक नाप है"नतीजे ऒर परिश्रम के बीच का संबन्ध. ऒर उत्पादन की दक्षता की एक परिभाषा हो सकती है "कम से कम परिश्रम से अधिक से अधिक फल (अधिकतम उत्पादन)". इसको जताने का एक तरीका है, "अधिक परिश्रम ज़रूरी नही है; नतीजा निकलना चाहिये." यहां आमतौर से प्रशंसनीय "कठिन परिश्रम" (जिससे कि काम होता है) अंतिम फल से कम श्रेणी का बताया गया है (अंतिम लक्ष्य या नतीजा). यह आलस्य बढ़ाने के लिये नहीं कहा जा रहा है, किन्तु अपने साधनों का उपयुक्त उपयोग करने के लिये (जिसमें अपना परिश्रम शामिल है) बुद्धिमत्ता के साथ, और (इस संदर्भ में) दक्षता के साथ E. छुपे हुए साधनों का उपयोग: अगर सबके सहयोग से निर्णय लिया जाय, तो बहुत से ऐसे छुपे हुए साधन और सुझाव आपको मिलेंगे जो कि एकतरफा निर्णय लेने से नहीं मिलते. इसीलिये शिक्षण के समय शिक्षक सिखाता है कि किस तरह, "निर्णय क्रिया में सबको सम्मिलित किया जाता है." एक (त्रुटिपूर्ण) मनुष्य के पास , चाहे वह कितना भी बढ़ा हो, हमेशा ही पूरे समाज के सद्स्यों की तुलना में कम अनुभव, कम ग्यान, कम बुद्धिमत्ता होगी. प्रजातंत्र के हिसाब से भी हर सद्स्य का हक बनता है कि वह सब कार्यों में भाग ले सके; ऒर समाज को दृढ बनाने में, उसे मज़बूत करने में, उसके साधनों का पूर्ण रूप से सही उपयोग करने में, सही दिशा चुनने में, बुद्धिमत्ता इसी में है कि सबका सहयोग लिया जाय. F. स्वावलंबन के लिये प्रेरणा समाज संचालन के शिक्षक को बार बार सद्स्यों को याद दिलाना चाहिये कि "वह अपने पैरॊं पर खड़े हों." किसी ऒर का सहारा लेना, बाहरी लोगों की मदद, लंबे समय तक नहीं रह सकती (बाहर के लोग थोड़े समय के मेहमान होते हैं), और कमज़ोरी और असहायता को बढ़ाती है. स्वावलंबन को बढ़ावा दीजिये; यह आपका अधिकार और हक भी है. यहां एक और कहावत उपयुक्त है: "अगर आप औरों को दोष देते हैं तो आप अपनी शक्ति का त्याग करते हैं," (रे ऐंथनी). समाज सेवक को कभी भी दयनीयता से धोखा नहीं खाना चाहिये, "हम बहुत गरीब हैं, हमें बाहर से मदद चाहिये." हर (हरेक) समाज, संस्था, चाहे कितनी भी गरीबी में क्यों न हो, अगर उसमें जीते जागते इंसान हैं. तो उसमें साधन होंगे, छुपे हुए साधन, जिनसे वह अपनी दशा सुधार सकती है असली गरीबी है कि हमें अक्सर मालूम ही नही होता कि हमारे पास क्या साधन हैं, न कि साधन हैं ही नहीं. G. कुछ भी मुफ्त नहीं: मुफ्त का खाना कभी नही मिलता (मुफ्त में कुछ नहीं मिलता). बिना वेतन के स्वयं सेवक, आर्थिक दान, सबकी कीमत चुकानी पड़ती है, भले ही वह धन के रूप में न हो यह कभी प्रशंसा, कभी प्रेरणा, ओर कभी समाज के सामने कृतग्यता दिखाने का रूप लेती है. बढ़ी बढ़ी संस्थाओं के शिक्षकों ने कहा है कि सिर्फ वेतन के आधार पर लोगों से पूरा काम नहीं लिया जा सकता; लोगों से सामर्थ्य पूर्ण काम लेने के लिये प्रशंसा और प्रेरणा की ज़रूरत होती है, फिर चाहे काम करने वाले वेतन पर हों या बिना वेतन के, स्वेच्छा से कर रहे हों लोगों के योगदान को पहचानें, सच्ची प्रशंसा करें, अच्छाईयों को मान दें, ऒर आलोचना न करें. H. हम निश्चल नहीं रह सकते: अगर हम आगे नहीं बढ़े तो हम पिछड़ जायेंगे. समाज निश्चल नहीं है, हमेशा बदलता रहता है. किसी भी समस्या का सदा के लिये हल असंभव है, "हमेशा के लिये," (धोखा है). जो आज समाधान लगता है, हो सकता है कल खुद समस्या बन जाय हम सही दिशा में भी हों पर आगे नहीं चलें तो कुचले जायेंगे. ऒर: संचालन प्रशिक्षण में कई और सूत्र और सिद्धान्त हैं. यहां उन सब का उल्लेख करना संभव नही है. आपको उन्हें खोजना चाहिये. ऒर जैसे यह आपको मिलें उन्हें अपने ध्यान में उतारें और अपने अन्य साथियों के साथ भी बांटें . समाज के स्शक्तिकरण संस्था को मज़बूत बनाने में, बहुत समानतायें हैं, खास रूप से जब सहयोग की दृष्टि से देखा जाय. ––»«––संचालन प्रशिक्षण: अगर
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