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PRA के माध्यम से खुशी बांटना

नेपाल

के द्वारा Kamal Phuyal

translated by Parveen Rattan


"अक्सर प्रषिक्षण के दौरान विद्यार्थी उतना ध्यान विषय पर नही देते जितना कि शिक्षक के बर्ताव पर - खास रूप से कि शिक्षक का बर्ताव जो वह सिखा रहा है, उसके अनुसार है या नही. अगर उन्हें लगा कि शिक्षक का बर्ताव सचमुच उसीकी शिक्षा के अनुसार है तो वह उसका अनुकरण करेंगे और खुद अपने बर्ताव में भी बद्लाव लाने की कोशिश करेंगे"
(श्री उत्तम ढ़खवा, आध्यात्म और प्रगति की संस्था).

PRA का क्यों उपयोग किया जाये ? यह सवाल कई बार कई जगह उठा है, जैसे प्रशिक्षण के दौरान. मेरे अनुभव में, मैने PRA के तीन मुख्य अंग देखे हैं; रवैया और बर्ताव, कल्पना या दूर-द्रिष्टि, और (तकनीकों का प्रयोग) या निपुणता का अंग. यह तीसरा कोण सबको समझ आता है, क्योंकि इसमे सिखाई गई बातों को प्रयोग में लाने पर ज़ोर दिया जाता है. कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि अधिकतर प्रशिक्षण इसी अंग पर केंद्रित रहता है. PRA के इतिहास से बात शुरु होती है, और तकनीकों के प्रयोग पर समाप्त हो जाती है

पहला भाग केन्द्रित है सवाल पर कि PRA का उपयोग किसको करना चाहिये? इसके लिये उन व्यक्तियों में कौन से गुण होने चाहिये. दूसरा सवाल है, सिर्फ़ PRA ही क्यों, और कुछ क्यों नही? PRA की क्या विषेशतायें हैं? और तीसरा अंग है कि इसके तकनीक कैसे बेहतर बनाये जायें? इनको प्रयोग में लाने की प्रक्रिया क्या है?

स्थानीय व्यक्तियों की इसमें भागीदारी निर्भर करेगी PRA के शिक्षक के व्यवहार पर.

प्रगति का मतलब है सुख बांटना

एक बार मेरे एक सह-कार्यकर्ता ने कहा था , “तुम जानते हो प्रगति क्या है? मेरे अनुभव में सिर्फ़ सुख का बांटना.” यह बात उसने कई उदाहरणों द्वारा समझाई, और मुझे प्रगति की यह परिभाषा बहुत अच्छी लगी.

मुझे कई योजनायों को देखने का अवसर मिला है; कुछ में करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं और कुछ में सिर्फ़ कुछ हज़ार. एक बार मै पोखरा गया था, कठ्मन्डू से कोई २०० km दूर एक गांव. हमलोग एक पीने के पानी की योजना के लिये मिलकर जांच कर रहे थे. हमारा समय बहुत उपयोगी रहा - गांव के लोग पूरा सहयोग दे रहे थे और बहुत खुश भी थे कि हम वहां आये. पैसे के हिसाब से यह बहुत ही छोटी योजना थी. सरकार के जल नियन्त्रण विभाग और एक जापानी संस्था की यह मिली जुली योजना थी, और इसे पूरा करने में सिर्फ़ ३५,००० रुपये खर्च हुए थे. उस गांव की महिलायों ने हमें इस योजना के बारे में बताया:

एक दीदी (सिस्टर) हमारे गांव में काम करने आयी. हमलोगों ने काफी समय तक उनकी कोई परवाह नही की. और गांव वालों ने तो उसे वापस जाने को भी कहा (क्यॊंकि उनके अनुभव कुछ और समाजसेवकों के साथ अच्छे नही रहे थे) पर दूसरी ओर वह दीदी रात रात भर हमारी ही समस्याओं के बारे में सोचती रहती थी. वह बहुत अच्छी थी. धीरे धीरे वह हम सब को भा गयी और फिर हम सब ने मिलकर कई काम पूरे किये. अब हमारे अपने सहकारी संघ हैं. पढ्ने लिखने की सुविधायें बनायी गयी. उनके साथ हमारा समय बहुत अच्छा बीता. साथ में काम करके हम सब बहुत खुश थे और मज़ा भी बहुत आता था. हमने सब काम हंसते-खेलते समाप्त किये. आज भी वो दिन याद करके हम खुश होते हैं. हमें अपनी योजना पर गर्व है और हम उसे कायम रखेंगे जिससे हमें अपना साथ बिताया हुआ समय याद रहे.

इन गांव वालों को ठीक से समितियों का नाम भी नही लेना आता है ;वह बार बार सिर्फ यही दोहरा रहे थे कि वह अपनी बिकासे दीदी के साथ काम करके कितने खुश थे (‘समाज सेवक - दीदी’). दुर्भाग्यवश हम उस दीदी से मिल नही सके, किन्तु हमें यह मालूम हुआ कि वह गांव की औरतों के साथ काम करके बहुत संतुष्ट थी. उसका मकसद सिर्फ़ लोगों के साथ खुशी बांटना था. गांव के लोग और दीदी अपने सुख-दुख बांटते थे. पीने के पानी की योजना इसका माध्यम बनी. और इसकी वजह से यह योजना सफल भी हुई. गांव वालों को न ही मालूम है कि इस योजना में कितना पैसा खर्च हुआ और न ही उन्हें इसकी चिन्ता है. पूरी समीक्षा के दौरान उन्होंने सिर्फ़ अपनी खुशी का ही बयान किया. इसीकी वजह से उन्हें कई और काम करने की प्रेरणा भी मिली. अब उनका अपना सहकारी संघ है और साथ ही देख रेख के लिये महिलायों ने अपनी एक समिति भी बनायी है. अपनी बचत के लिये भी संघ बनाये हैं. “ऐसे संघ बना कर हम खुश हैं, यहां हम अपनी समस्यायें और अपने सुख दोनो ही बांटते हैं ,” उनका कहना था.

एक बहुत बडी संस्था ने कोई डेड़ करोड़ रुपया एक गांव के पीने के पानी की योजना के लिये लगाया, नवाकोट जिले, काठ्मन्डु के उत्तरी भाग में . और दूसरी ओर एक ग्राम प्रगति समिति (VDC), जो करीब ८०० परिवारों के लिये काम करती है (अलग अलग गांवों में रहने वाले ), उसे सरकार से सिर्फ़ ५ लाख रुपये सालाना मिलता है. यहां गांव की ओर से योजना के प्रति काफी विरोध भी था. गांव वाले इस योजना से खुश नही थे, यद्यपि उनकी दूर से पानी लाने की समस्या हल हो गयी थी. समीक्षा के दौरान उन्होंने कहा:

योजना तकरीबन पूरी हो गयी है, पर हम किसी कार्यकर्ता को पहचानते तक नही है. वह बदलते रहते हैं. वह दुबारा इस गांव में नज़र नही आते. हमें एहसास ही नही होता कि यह हमारी योजना है. हमने सुना है कि उन्होने एक कार्य समिति बनायी है. हमे मालूम नही उसमें कौन हैं. शायद कुछ नेता होंगे. उनके कर्मचारियों का यहां कोई कार्यालय नही है, और न ही यहां कोई रहता है. वह लोग वापस काठ्मन्डु या त्रिशूली (जिला मुख्यालय) चले जाते हैं, अपनी गाड़ियों में बैठ कर. पास के गांव के एक ठेकेदार ने निर्माण का ठेका लिया है. एक बार हम उनके लोगों से बात करने गये भी, किन्तु लगा कि वह हमसे बात करने को उत्सुक नही थे.

गांव वाले कई वर्षों से पीने का पानी पास के झरने से लाते रहे हैं, और ऐसा भविष्य में भी जारी रह सकता था. किसी ने उनसे यह नही पूछा कि उनकी इच्छा क्या थी, उनके विचार क्या थे. यह सब बाहर के लोगों ने सोचा और कुछ चुने हुए लोगों की मदद से पूरा किया. ऐसे हालात में यह योजना खुशी बांटने का माध्यम नही बन सकती थी. जब से योजना शुरु हुई तभी से गांव निवासियों और योजना कर्मचारियों के बीच दूरी बड़्ती गई. ऐसा लगता था कि कर्मचारियों के लिये यह सिर्फ एक और काम था. उन्हें ऐसा लगता था कि वह गांव के लोगॊं पर एह्सान कर रहे हैं. उनके पास गांव के लोगॊं के लिये समय ही नही था, और बिना उनसे संपर्क किये खुशी कैसे बांटी जा सकती है ?

हमारे इतिहास में कई कहानियां हैं जिनमें लोगों को साथ लेकर काम करने के वर्णण हैं. इस तरह लोगों ने कई चीज़ें बनाई हैं, जैसे मन्दिर, सड़कें, कुंए, तालाब, विद्यालय आदि. यह सब कार्य ऐसे होते थे जैसे कोई उत्सव मनाया जा रहा हो. अगर आप थोड़ा गहराई से देखें तो पायेंगे कि इन सब की प्रेरणा थी खुशी बांटना. यह सब काम हंसते गाते, मिल कर खाते पीते हुए ही हो जाते थे. ऐसा प्रतीत होता है, जैसे यह लोग अपनी खुशियां कभी कुछ लेकर, कभी कुछ देकर, और कभी कुछ बांट कर करते हैं.

मेरे एक सह-कार्यकर्ता को एक बार एक बह्त बड़ी संस्था से नौकरी का प्रस्ताव आया. उसने बहुत सोचा, सबसे सलह-मशवरा भी किया, फिर प्रस्ताव ठुकरा दिया. उसका कहना था:

मुझे नही लगता कि ऐसा खुशहाल वातावरण मुझे ’ नई जगह में मिलेगा. मैं यहां बहुत संतुष्ट हूं और अपने सुख दुख सब के साथ बांट सकती हूं. मुझे यहां काम भी पसन्द है. उन्होंने मुझे दुगुना वेतन और कई और सुविधायें देने का वादा किया है. पर मुझे डर है यह खुशी वहां न होगी.

PRA के माध्यम से सुख बांटना

आज तक हमें कोई भी PRA की शिक्षा उबाने वाली नही लगी है. हाल ही में मैने PRA की समीक्षा की ६० रिपोर्ट्स पढ़ी. उनमें मैने खास तौर से शिक्षण के भागीदारों के PRA के विषय में विचार देखे. मुझे एक भी ऐसा वक्तव्य नही मिला जिसमे लिखा हो कि कोई इससे ऊब गया हो. उनके विचार कुछ ऐसे थे: "दस दिन, दस मिनिट की तरह गुज़र गये," "पूरीप्रक्रिया एक खेल की तरह थी," "हम बिल्कुल भी ऊबे नही," "हमबहुत हंसे," "हमने बहुत कुछ बांटा," आदि. जो भी आप PRA से सीख सकते हैं, वह आप अन्य तरीकों से भी सीख सकते हैं. किन्तु मेरा अनुभव है कि PRA का एक मुख्य फायदा यह है कि इससे ऐसा वातावरण बनता है जिसमे खुशी बांटना संभव होता है. यहं पर लोगों को किसी भी तरह का भेदभाव महसूस नही होता (वर्ग, जाति, या लिंग) का. यहां सभी हंसते हैं, सीखते हैं, बांटते हैं. इसीसे लोगों में आपसी बंधन मज़बूत होते हैं या प्रशिक्षण के समय या फिर समाज के रोज़ के जीवन में.

“आपको शायद मालूम हो, सामाजिक मानचित्र बनाते समय, लोग पत्थर और लकड़ियां आदि हटा कर मकान बनाते हैं. पहले १५ मिनिट तक उन्हें याद रहता है कि वह एक चित्र बना रहे हैं. फिर वह भूल ही जाते हैं कि वह पत्थरों आदि से खेल रहे हैं. अचानक ही सब सच जैसे लगने लगता है. वे चिल्लाते हैं, हंसते हैं, ज़ोर ज़ोर से बोलते हैं, और कभी कभी तो नाराज़ भी होते हैं. इसलिये मुझे लगता है कि पहले १५ मिनिट बाद वह सचमुच क्रिया में डूबने लगते हैं ऒर इसी क्षण से खुशी बांटने की क्रिया शुरु होती है. और जब ऐसा होता है तो दूसरे गांव के लोग जो अब तक सिर्फ दूर से देख रहे थे, वह भी स्वय ही भाग लेने लगते हैं. अनपढ ऒर पिछड़े वर्ग के लोग भी भाग लेने के लिये प्रेरित होते हैं. खुशी बांटने से यह कार्य आसान हो जाता है”

किन्तु, PRA अगर बिना ‘खुशी बांटे’ किया जाय तो बहुत उबाने वाला ऒर सिर्फ़ एक तकनीक बन जाता है. कभी कभी तो इससे खतरा भी पैदा हो सकता हैl. ढ़ाडिंग जिले, काठ्मन्डु के पास, की ग्राम प्रगति समिति के एक उच्च अधिकारी ने अपने अनुभव एक ऐसे ‘PRA दल’ के बारे में बताये:

"एक बार PRA शिक्षकों का एक दल ४-५ कुलियों के साथ आया जिन्होनें उनका रहने-खाने का सामान उठाया हुआ था. गांव पहुंचते ही उनमे से कुछ कुछ मुर्गियां लेने चले गये ऒर कुछ आग के लिये लकड़ियां काटने चले गये. कुछ युवा पानी के नल की तरफ जाकर गांव की लड़्कियों से छेड़-छाड़ करने लगे. शाम के समय उन्होने बड़ा आयोजन रखा. अन्ग्रेज़ी (English) गाने चलाये ऒर डिस्को नाच आदि करने लगे. यह तब तक चलता रहा जब तक कि उनमे से दो लोगों में, जो काफी नशे में थे, झगड़ा शुरु हो गया. दूसरी सुबह वह लोग सिर्फ़ ७-८ लोग ही जमा कर सके, जिनमे से ३ उस घर के थे, जहां वह रात भर रहे थे, ऒर ‘उनके साथ PRA की शिक्षा शुरु की’."

इस तरह का शिक्षण जिसमे लोग भाग ही न ले, खुशी बढ़ाता नही है, कम ही करता है. इसके अलावा इससे PRA की पूरी क्रिया का महत्व ही समाप्त हो जाता है.

जो भी हम PRA से कर सकते हैं वह अन्य तरीकों से भी किया जा सकता है. इनसे भी समाज में भागीदारी की भावना पैदा की जा सकती है. अनपढ ऒर पिछड़े वर्ग के लोगों को अन्य तरीकों से भी भाग लेनेके लिये प्रेरित किया जा सकता है. पर जैसा पहले कहा है, PRA का मुख्य मूल्य है कि इससे खुशी बांटने का एक वातावरण बन जाता है.

एक बार सिन्धुपलचौक जिले (कठ्मन्डु के पूर्वी-उत्तर भाग) में एक गांव के निवासियों को अपनी खुशहाली को आंकने का कार्य दिया गया. उन्होंने एक बूढे आदमी को बहुतकमअंक दिये’. वह व्यक्ति वहीं था. उसने इसका विरोध किया. काफी समय तक चर्चा चली. दूसरे लोग उदाहरण देकर साबित करना चाहते थे कि वह सच में ही दीन हालत में था. असल में वह उसकी मदद करना चाहते थे क्योंकि योजना गरीबों के लिये थी. ऒर उस बूढे के पास कुछ भी न था. उसके लिये दो वक्त का भोजन जुटाना भी कठिन था. उसने कहा - “मेरे पास खाने को भले ही न हो पर मैं सुखी हूं. इस गांव में शायद मैं सब से सुखी व्यक्ति हूं. क्या किसी ने मुझे उदास देखा है? फिर मुझे कैसे गरीब कह सकते हो ?” असल में यह व्यक्ति किसी भी सार्वजनिक कार्य में पहल करता था. अन्त में लोगों ने उसे ‘बीच के स्तर पर अंकित किया.’

इसके बाद उस व्यक्ति के साथ हमारी लम्बी बातचीत हुई. तब हमें लगा कि उसकी खुशी उसीके अन्दर से आती थी. जब वह कहीं चला जाता था तो सारे गांव को ही उसकी कमी खलती थी. हमारी PRA टीम को तब लगा कि कुछ मूल ज़रूरतें (कम से कम) सभी इंसानों का अधिकार हैं, और भूख सुख की राह में बहुत बाधायें खड़ी कर सकती है. पर फिर भी भौतिक खुशहाली की तुलना मानसिक ऒर आध्यात्मिक खुशहाली से नही की जा सकती.

पिछले महीने ही इस विषय पर हमारी चर्चा हुई थी. किसी ने पूछा: "समाज के पिछड़े ऒर निम्न वर्ग के लोगों का सामर्थ्य कैसे बढ़े??" वह किसके साथ अपने सुख बांटें? चर्चा के बाद कुछ ऐसे नतीजे निकले:

"निश्चय ही हमे न्याय चाहिये, भेदभाव नही, हमारा शोषण नही, ऒर हम चाहेंगे कि हमारा भी सामर्थ्य बढ़े ’. इसलिये हम चाहेंगे कि इस क्रिया में ऐसे सभी पिछड़े वर्गॊं को भागीदार बनाया जाय. हम उनकी आवाज़ सुनना चाहते हईं. उनके विचार सुनना चाहते हैं. हम इस क्रिया में उनके सहयोगी बनना चाहते हैं. यह इसलिये नही कि यह हमारा काम है, किन्तु इसलिये कि इससे हमारी खुशी बढेगी. हम चाहते हैं कि वह उठें और भेदभाव कम हों. उन्हें लगना चाहिये कि इस क्रिया में हमें उनका सहयोग देने में खुशी होगी. इस तरह ही हम उनके साथ सुख बांट सकते हैं. एक बार जब उन्हें ऐसा लगेगा तब वह भी खुद ही अपने सुख हमारे साथ बांट सकेंगे. निश्चय ही PRA से भेद-भाव दूर होते हैं इस क्रिया से अन्य ऐसे कार्यों में भी सहयोग मिलता है."

एक ग्राम प्रगति समिति के अधिकारी ने PRA को योजना बनाने के संबन्ध में अपने अनुभव बताये.

"PRA से पहले हम अपने सद्स्यों से उनकी इच्छायें एकत्र करते थे. इससे हमारी मेजों को बहुत नुक्सान होता था क्योंकि हर एक सद्स्य अपनी मांग के मह्त्व को जताने के लिये ज़ोर ज़ोर से मेज ठोकता था ! किन्तु आजकल इस तरह मांगों का क्रमांक से संयोजन करने से हमारी मेजें आजकल बची हुई हैं. हम यह कार्य अब खुशी से कर लेते हैं."

इस क्रिया से मैने कई अनुभव एकत्र किये हैं जिनसे मुझे सीख मिली है कि PRA के माध्यम से हम सारे गांव में खुशी बांट सकते हैं, ऒर खास तौर से उन वर्गों के साथ जो कमज़ोर हैं ऒर पिछड़े हुए हैं. मेरा विश्वास है कि किसी भी विषय की अच्छाईयों पर गौर करने से (चाहे वह कुछ भी हो) हमे आगे बढने के लिये सहयोग मिलता है. सिर्फ कमज़ोरियों पर गौर करने से हम सिकुड़ जाते हैं ;ऐसा करने से हम प्रगति नही कर सकते.

कमल फुयाल
नेपाल
प्रकाशन के लिये लेख दिया गया IDS वर्क्शौप, "भाग लेने के तरीके."
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© कॉपीराइट १९६७, १९८७, २००७ फिल बार्टले
वेबडिजाईनर लुर्ड्स सदा
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आखरी अपडेट: ०६.०८.२०११

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